लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
सरदार नीलकंठ वहीं बैठे
हुए थे बोले-
अभी तुम जाने
के लायक नहीं
हो।
नायकराम-सरदार साहब, आप
भी इन्हीं की-सी कहते
हैं। इनके साथ
न रहूँगा, तो
रानीजी को कौन
मुँह दिखाऊँगा!
विनय-तुम यहाँ
ज्यादा आराम से
रह सकोगे, तुम्हारे
ही भले की
कहता हूँ।
नायकराम-सरदार साहब, अब
आप ही भैया
को समझाइए। आदमी
एक घड़ी की
नहीं चलाता, तो
एक हफ्ता तो
बहुत है। फिर
मोरचा लेना है
वीरपालसिंह से, जिसका
लोहा मैं भी
मानता हूँ। मेरी
कई लाठियाँ उसने
ऐसी रोक लीं
कि एक भी
पड़ जाती, तो
काम तमाम हो
जाता। पक्का फेकैत।
क्या मेरी जान
तुम्हारी जान से
प्यारी है?
नीलकंठ-हाँ, वीरपाल
है तो एक
शैतान। न जाने
कब, किधार से,
कितने आदमियों के
साथ टूट पड़े।
उसके गोइंदे सारी
रियासत में फैले
हुए हैं।
नायकराम-तो ऐसे
जोखिम में कैसे
इनका साथ छोड़
दूँ? मालिक की
चाकरी में जान
भी निकल जाए,
तो क्या गम
है, और यह
जिंदगानी किसलिए!
विनय-भाई; बात
यह है कि
मैं अपने साथ
किसी गैर की
जान जोखिम में
नहीं डालना चाहता।
नायकराम-हाँ, अब
आप मुझे गैर
समझते हैं, तो
दूसरी बात है।
हाँ, गैर तो
हूँ ही; गैर
न होता, तो
रानीजी के इशारे
पर कैसे यहाँ
दौड़ा आता, जेल
में जाकर कैसे
बाहर निकाल लाता
और साल-भर
तक खाट क्यों
सेता? सरदार साहब,
हुजूर ही अब
इंसाफ कीजिए। मैं
गैर हूँ?जिसके
लिए जान हथेली
पर लिए फिरता
हूँ, वही गैर
समझता है।
नीलकंठ-विनयसिंह, यह आपका
अन्याय है। आप
इन्हें गैर क्यों
कहते हैं? अपने
हितैषियों को गैर
कहने से उन्हें
दु:ख होता
है।
नायकराम- बस, सरदार
साहब, हुजूर ने
लाख रुपये की
बात कह दी।
पुलिस के आदमी
गैर नहीं हैं
और मैं गैर
हूँ!
विनय-अगर गैर
कहने से तुम्हें
दु:ख होता
है, तो मैं
यह शब्द वापस
लेता हूँ! मैंने
गैर केवल इस
विचार से कहा
था कि तुम्हारे
सम्बंधा में मुझे
घरवालों को जवाब
देना पडेग़ा। पुलिसवालों
के लिए तो
मुझसे कोई जवाब
न माँगेगा।
नायकराम-सरदार साहब, अब
आप ही इसका
जवाब दीजिए। यह
मैं कैसे कहूँ
कि मुझसे कुछ
हो गया, तो
कुँवर साहब कुछ
पूछ-ताछ न
करेंगे, उनका भेजा
हुआ आया ही
हूँ। भैया को
जवाबदेही तो जरूर
करनी पड़ेगी।
नीलकंठ-यह माना
कि तुम उनके
भेजे हुए आए
हो; मगर तुम
इतने अबोधा नहीं
हो कि तुम्हारी
हानि-लाभ की
जिम्मेदारी विनयसिंह के सिर
हो। तुम अपना
अच्छा-बुरा आप
सोच सकते हो।
क्या कुँवर साहब
इतना भी न
समझेंगे?
नायकराम-अब कहिए
धार्मावतार, अब तो
मुझे ले चलना
पड़ेगा, सरदार साहब ने
मेरी डिग्री कर
दी। मैं कोई
नाबालिग नहीं हूँ
कि सरकार के
सामने आपको जवाब
देना पड़े।
अंत में विनय
ने नायकराम को
साथ ले चलना
स्वीकार किया और
दो-तीन दिन
पश्चात् दस आदमियों
की एक टोली,
भेष बदलकर, सब
तरह लैस होकर,
टोहिए कुत्तों के
साथ लिए, दुर्गम
पर्वतों में दाखिल
हुई। पहाड़ें से
आग निकल रही
थी। बहुधा कोसों
तक पानी की
एक बूँद भी
न मिलती; रास्ते
पथरीले, वृक्षों का पता
नहीं। दोपहर को
लोग गुफाओं में
विश्राम करते थे,
रात को बस्ती
से अलग किसी
चौपाल या मंदिर
में पड़े रहते।
दो-दो आदमियों
का संग था।
चौबीस घंटें में
एक बार सब
आदमियों को एक
स्थान पर जमा
होना पड़ता था।
दूसरे दिन का
कार्यक्रम निश्चय करके लोग
फिर अलग-अलग
हो जाते थे।
नायकराम और विनयसिंह
की एक जोड़ी
थी। नायकराम अभी
तक चलने-फिरने
में कमजोर था,
पहाड़ाेंं की चढ़ाई
में थककर बैठ
जाता, भोजन की
मात्रा भी बहुत
कम हो गई
थी, दुर्बल इतना
हो गया था
कि पहचानना कठिन
था। किंतु विनयसिंह
पर प्राणों को
न्योछावर करने को
तैयार रहता था।
यह जानता था
कि ग्रामीणों के
साथ कैसा व्यवहार
करना चाहिए, विविधा
स्वभाव और श्रेणी
के मनुष्यों से
परिचित था। जिस
गाँव में पहुँचता,
धूम मच जाती
कि काशी के
पंडाजी पधाारे हैं। भक्तजन
जमा हो जाते,
नाई-कहार आ
पहुँचते, दूधा-घी,
फल-फूल, शाक-भाजी आदि
की रेल-पेल
हो जाती। किसी
मंदिर के चबूतरे
पर खाट पड़
जाती, बाल-वृध्द,
नर-नारी बेधाड़क
पंडाजी के पास
आते और यथाशक्ति
दक्षिणा देते। पंडाजी बातों-बातों में उनसे
गाँव का समाचार
पूछ लेते। विनयसिंह
को अब ज्ञात
हुआ कि नायकराम
साथ न होते,
तो मुझे कितने
कष्ट झेलने पड़ते।
वह स्वभाव से
मितभाषी, संकोचशील,गम्भीर आदमी
थे। उनमें वह
शासन-बुध्दि न
थी, जो जनता
पर आतंक जमा
लेती है, न
वह मधाुर वाणी,
जो मन को
मोहती है। ऐसी
दशा में नायकराम
का संग उनके
लिए दैवी सहायता
से कम न
था।
रास्ते में कभी-कभी हिंसक
जंतुओं से मुठभेड़
हो जाती। ऐसे
अवसरों पर नायकराम
सीनासिपर हो जाता
था। एक दिन
चलते-चलते दोपहर
हो गया। दूर
तक आबादी का
कोई निशान न
था। धूप की
प्रखरता से एक-एक पग
चलना मुश्किल था।
कोई कुऑं या
तालाब भी नजर
न आता था।
सहसा एक ऊँचा
टीकरा दिखाई दिया।
नायकराम उस पर
चढ़ गया कि
शायद ऊपर से
कोई गाँव या
कुऑं दिखाई दे।
उसने शिखर पर
पहुँचकर इधार-उधार
निगाह दौड़ाई, तो
दूर पर एक
आदमी जाता हुआ
दिखाई दिया। उसके
हाथ में एक
लकड़ी और पीठ
पर एक थैली
थी। कोई बिना
वर्दी का सिपाही
मालूम होता था।
नायकराम ने उसे
कोई बार जोर-जोर से
पुकारा, तो उसने
गर्दन फेरकर देखा।
नायकराम उसे पहचान
गए। यह विनयसिंह
के साथ का
एक स्वयंसेवक था।
उसे इशारे से
बुलाया और टीले
से उतरकर उसके
पास आए। इस
सेवक का नाम
इंद्रदत्ता था।
इंद्रदत्ता
ने पूछा-तुम
यहाँ कैसे आ
फँसे जी? तुम्हारे
कुँवर कहाँ हैं?
नायकराम-पहले यह
बताओ कि यहाँ
कोई गाँव भी
है, कहीं दाना-पानी मिल
सकता है?
इंद्रदत्ता-जिसके राम धानी,
उसे कौन कमी!
क्या राजदरबार ने
भोजन की रसद
नहीं लगाई? तेली
से ब्याह करके
तेल का रोना!
नायकराम-क्या करूँ,
बुरा फँस गया
हूँ, न रहते
बनता है, न
जाते।
इंद्रदत्ता-उनके साथ
तुम भी अपनी
मिट्टी खराब कर
रहे हो। कहाँ
हैं आजकल?
नायकराम-क्या करोगे?